सियासत में शिखर संक्रमण के गंभीर संकेत

लोकमत में आज
******
सियासत में शिखर संक्रमण के गंभीर संकेत
——————————-
राजेश बादल
कहावत है कि बचाव इलाज़ से अच्छा है।लेकिन हिन्दुस्तान की सियासत में शिखर नेताओं के बीच कोरोना – संक्रमण का विस्तार संकेत है कि इस महामारी से बचाव और सतर्कता के उपायों में कहीं न कहीं चूक हुई है।यह एक तरह से हमारी स्वास्थ्य सेवाओं पर भी सवाल है कि अत्यंत विशिष्ट और मुल्क़ की लोकतान्त्रिक सेहत के लिए आवश्यक राजनेताओं की तबियत का ख़्याल रखने वाले सार्वजनिक स्वास्थ्य तंत्र की अपनी सेहत कैसी है।कमोबेश सभी शिखर पुरुष अपने इलाज़ में निजी संस्थाओं पर भरोसा कर रहे हैं।इसका अर्थ यह भी निकलता है कि सरकारी चिकित्सा तंत्र दोयम दर्ज़े का है और सिर्फ़ कमज़ोर तथा ग़रीब अवाम के लिए ही बनाया गया है।
केंद्रीय गृह मंत्री ,तमिलनाडु के राज्यपाल, कर्नाटक ,मध्यप्रदेश और हिमाचल के मुख्यमंत्री और राज्यों के अनेक मंत्रियों तथा नेताओं का इस महामारी की गिरफ़्त में आना बचाव तंत्र की नाकामी उजागर करता है।उत्तर प्रदेश में एक काबीना मंत्री की मौत ने सूबे में ख़लबली मचा दी है। कई प्रदेशों के स्वास्थ्य मंत्री ही संक्रमित हो जाएँ तो आम आदमी किस तरह अपने को इस लाइलाज़ मर्ज़ की जकड़ में आने से रोक सकता है। भारत के सबसे अमीर सुपर स्टार भी अस्पताल में दाख़िल हो जाएँ तो करोड़ों दिलों में घबराहट स्वाभाविक है। वे सोचते हैं कि बड़े बड़े कुबेरों की दौलत इस वैश्विक महामारी के संक्रमण से उन्हें नहीं बचा सकी तो आर्थिक दृष्टि से निर्बल इंसान कैसे बच सकता है। ऐसे ही अवसरों पर राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन और नीति का पोचापन भी सामने आता है। केवल बाढ़ और भूकंप से सुरक्षा करना ही इस आपदा प्रबंधन तंत्र का काम नहीं है।
दरअसल संविधान हर नागरिक को उत्तम स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराने का वादा करता है। सरकार और समूचे प्रतिपक्ष का यह संवैधानिक फ़र्ज़ है।हालिया दशकों में देखा गया है कि बुनियादी स्वास्थ्य ,शिक्षा और रोज़गार मुहैया कराने के दायित्व से हुक़ूमतें हटती जा रही हैं।आबादी बढ़ती गई और ज़िम्मेदारी घटती गई।सरकारी अस्पतालों और मानसिक सेहत मज़बूत बनाने वाले स्कूलों की ओर उदासीनता दिखाने का नतीजा यह निकला कि निजी क्षेत्र ने इसे कारोबार बना लिया और सरकारों ने इसे बढ़ावा दिया। धीरे धीरे निजी तंत्र विराट होता गया और शासकीय ढाँचा बोना होता गया।प्राइवेट सेक्टर चूँकि धंधा कर रहे हैं इसलिए वे ऐसी दुकान बनकर रह गए ,जो सिर्फ पैसे वालों के काम आती है।जिसकी जेब में पैसा, उसकी दुकान।शिखर राजनेता प्राइवेट अस्पतालों में इलाज़ करा रहे हैं और आम आदमी सरकारी अस्पतालों में जाने से डरने लगा है ।अब मान्यता बन गई है कि सरकारी अस्पताल जाना यानी बीमारी लेकर लौटना है । नागरिक यह सोचने लगें तो इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है।
यह भी सच है कि किसी भी देश को गांधी और नेहरू बार बार नहीं मिला करते। वे बरसों तक हिन्दुस्तान की धरती में पकते हैं और आकार लेते हैं। इसके बाद ही वे घर घर में प्रतिष्ठित होते हैं। इसी तरह सियासत में प्रधानमंत्री और उनकी केबिनेट के सदस्य ,राज्यों में राज्यपाल, मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगी होते हैं। वे लंबे संघर्ष ,तपस्या और कड़ी मेहनत के बाद ही नेतृत्व के योग्य बनते हैं।कोई भी इंसान दो चार साल में ही गृहमंत्री या मुख्यमंत्री नहीं बन जाता। इसलिए गणतांत्रिक समाज उनके अनुभव की पूँजी से यक़ ब यक़ वंचित होना बर्दाश्त नहीं कर सकता। इसे भी दरकिनार नहीं किया जा सकता कि भारतीय राजनीति में जन प्रतिनिधियों को विशाल जन समूह अथवा मतदाताओं के साथ सघन संपर्क से नहीं रोका जा सकता। कोरोना जैसी महामारी के दरम्यान भी नहीं। इस तरह उनके संक्रमित होने पर ख़तरे की तलवार लगातार लटकी रहती है। अगर स्वास्थ्य तंत्र उन्हें इससे बचाने का प्रभावी उपाय नहीं कर सकता तो आज़ादी के बाद अब तक के सारे शोध और चिकित्सा अध्ययन बेमानी हैं।
मगर इसका मतलब यह नहीं है कि लीडरों को बचाने का ठेका डॉक्टरों ने ही ले रखा है।अगर कोई जानबूझकर अपने को मौत के मुँह में धकेलना चाहे तो आप कैसे रोक सकते हैं।हमने देखा है कि कोरोना का क़हर फरवरी से प्रारंभ हो गया था।चीन में कोरोना विकराल आकार में खड़ा था।इस पड़ोसी देश के अलावा भी बहुत से राष्ट्र कोरोना से लड़ रहे थे। ऐसे में भारतीय सियासतदान अपनी राजनीतिक गतिविधियाँ नियंत्रित नहीं कर रहे थे।सरकारों के बहुमत और अल्पमत में आने का खेल वेग के साथ भारतीय क्रीड़ांगन में चलता रहा।मध्यप्रदेश में जिन विधायकों ने मार्च में सरकार गिराई, वे सार्वजनिक आयोजनों में सक्रिय रहे।उन्होंने चिकित्सकों के निर्देश नहीं माने।अब उनमें से कई विधायक और मंत्री कोरोना संक्रमित हो रहे हैं।न जाने कितने मतदाताओं के संपर्क में ये संक्रमित राजनेता महीनों तक आते रहे और उन्हें भी यह महामारी भेंट करते रहे।क्या यह सेहत के साथ आमंत्रित खिलवाड़ नहीं था ?
हिन्दुस्तान के नेताओं का अपने स्वास्थ्य के बारे में यह भ्रम कब टूटेगा कि मंत्री, विधायक या सांसद होते हुए वे किसी अभेद्य क़िले में सुरक्षित हैं और प्रशासन का कवच उन्हें कोरोना से हमेशा बचाता रहेगा । सार्वजनिक गतिविधियों में बिना मास्क लगाए और सामाजिक दूरी की अवहेलना करते उनके फोटो और वीडियो निरंतर प्रचार माध्यमों में आते रहे हैं। ऐसी स्थिति में अवाम के ज़ेहन में यह बात भी आती है कि कोरोना के सन्दर्भ में जारी सारे दिशा निर्देश क्या सिर्फ जनता के लिए हैं। नेता इन क़ायदे क़ानूनों से ऊपर क्यों हैं ? संसद या सरकार के बनाए नियमों को जब सत्ता पर क़ाबिज़ लोग ही तोड़ते हैं तो सन्देश अच्छा नहीं जाता। क़ानूनों को तोड़ने वाले चंद हुक्मरान होते हैं।सोचिए ! उनसे प्रेरणा लेकर यदि करोड़ों लोग भीड़ की शक़्ल में सड़कों पर आकर क़ानून तोड़ने लगें तो स्थिति कितनी विकट हो जाएगी।इसलिए सियासत और सिस्टम – दोनों को अब सतर्क हो जाना चाहिए।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *