धर्म और अधर्म

धर्म और अधर्म
इन दो शब्दों के अर्थ समझने में हमारी गहरी दिलचस्पी हमेशा से रही है, इन विषयों के प्रति हमारी जिज्ञासा अनन्तकाल से निरन्तर है ।

कहने को ये सिर्फ दो शब्द हैं धर्म और अधर्म लेकिन अपने आप में बहुत गहरे और गूढ़ अर्थ छुपाए रखे हैं यह दो शब्द । इस संसार ना जाने कितने पंथ है, अनगिनत सम्प्रदाय है, बहुसंख्य विचारधारायें हैं लेकिन इन दो शब्दों का उपयोग सभी करते हैं बिना किसी किस्म के भेद के, इन दो शब्दों की महिमा अपरंपार है यह नस्ल, रंग, जाति, भाषा, देश, सम्प्रदाय आदि सभी प्रकार के विभाजक शब्दों से ऊपर है ।और तो और इन दो शब्दों के प्रति हर व्यक्ति की अवधारणा भी जुदा है ।

जबसे मानव सभ्यता अस्तित्व में आई है तब से लेकर आज तक विभिन्न सम्प्रदायों के विचारकों ने ना जाने कितने ग्रन्थ लिख डाले हैं इन दो शब्दों की व्याख्या करने में और इस तकनीक के जमाने में ना जाने कितने पेटाबाइट का डाटा आडियो और वीडियो के रूप में उपलब्ध है, इतने हजारों वर्ष बीत जाने के बाद भी इन दो शब्दों की कोई भी एक सर्वमान्य परिभाषा का चयन नहीं हो सका है ।

धर्मग्रन्थो में दो व्यक्तित्व का उल्लेख है – पहले यमराज जो बिना किसी भेदभाव के आपके पाप व पुण्य के अनुसार से आपका हिसाब करते हैं और दूसरे धर्मराज जो बिना किसी प्रेम या द्वेष के अपना कर्तव्य निभाते हैं। यहां ध्यान दें कि धर्म का मतलब पूजा, यज्ञ, ज्ञान या कर्मकाण्ड नहीं है। ये कर्तव्य है कर्म से कहीं पहले और आगे की स्थिति अर्थात आपकी समग्र परिस्थिति के हिसाब से कर्म, सोचविचार कर किया गया कर्म, इसलिए धर्म या अधर्म को भगवान से या पूजा से या पंथ से जोड़ना गलत है।
आईये अब इसका व्यवहारिक पहलू देखते है जो हमारी दैनिक दिनचर्या में अक्सर दिखाई देता है यथा एक धर्म में विश्वास करने वाला, नियमित पूजा पाठ करने वाला, सन्त समागम करने वाला व्यक्ति सामान्यतया आस्तिक कहलाता है और यह माना जाता है कि वो भगवान की शक्ति में और उनके न्याय में सम्पूर्ण आस्था रखकर उसे स्वीकार करता है, वो यह भलीभांति समझता भी है और मानता भी है कि परमपिता ने उसके इस मनुष्य जीवन के पल पल का लेखा जोखा पहले से ही निर्धारित कर दिया है जो अटल है और स्वीकार्य है ।

और हमारी नजर में अधर्मी या नास्तिक वो है जो अपने कर्म में और स्वयं में विश्वास रखकर अपने भाग्य से भिड़ने का अथक प्रयास करते हुए ईश्वर को चुनौती देता प्रतीत होता है ।

लेकिन जब हम इन्हीं अति घनघोर परम आस्तिकों को बाबा/ तांत्रिक/ सिद्ध /ज्योतिषि / दैव पुरुष आदि से मिलकर भविष्य को घटित होने से पहले जानकर, येन केन प्रकरेण उसे बदलवाने का महती प्रयत्न करते अक्सर ही देखते हैं तो यह समझना कतई मुश्किल नहीं होता कि असल में नास्तिक या अधर्मी कौन है, ईश्वर की सत्ता को चुनौती कौन देे रहा है, किसके साथ मिलकर दे रहा है ।

दरअसल जो लोग अपने कर्म/ कर्तव्य को भूलकर सिर्फ वही क्रियाकलाप जो उन्हें समझाये गये है, सिखाये गये है उसी को धर्म समझ कर उन्हीं बातों में विश्वास रखने लगते हैं तब वो अधर्म के सबसे आसान शिकार बन जाते हैं ।

तो इन सब बातों का निष्कर्ष क्या है ?
क्या है धर्म ?
क्या है अधर्म ?

आईये हम दूसरे सिरे से इसको समझने का प्रयास करते है।

कर्म दो प्रकार के होते हैं, जो हमारा अंतर्मन हमको स्पष्ट रूप से बताता है

पहला प्रकार सत्कर्म
और दूसरा दुष्कर्म

सत्कर्म जिसको धर्म कहा गया है
दुष्कर्म जिसको अधर्म कहा गया है

अर्थात धर्म मतलब सत्कर्म या अच्छे कर्म
और अधर्म मतलब दुष्कर्म या बुरे कर्म

इन दोनों को परिभाषित आपका अपना अंतर्मन करता है, सदैव करता है यह हम सभी निरन्तर अनुभव करते हैं, क्योकि हम स्वयम से झूठ नहीं बोल सकते

यही परम् ज्ञान है ।

लेकिन इतनी आसानी से इसका मिल जाना हमें स्वीकार्य नहीं हो पाता है ।

हमारे अंदर से यह आवाज निकलती है, अरे…! इसमें कौन सी बड़ी बात है ? यह तो हमको पहले से ही मालूम था, आपने क्या नया बताया ।
यकीन मानिए यह इतना ही

मैं कहता हूं, जोर देकर कहता हूं कि यह बहुत सरल है ।

पाषाण युग से यही चला आ रहा है
जब कोई भगवान नहीं था तब भी
जब कोई धर्म या पंथ नही था तब भी
जब कोई लिपि नहीं थी तब भी
जब कोई ग्रन्थ नहीं था तब भी

मनुष्यता कभी भी किसी धर्म, ग्रन्थ, या ज्ञान की मोहताज नहीं रही है तब भी और अब भी।

सदा से, अनादिकाल से यही परम् सत्य, यही परम् धर्म, यही परमज्ञान है ।

वस्तुतः सत्य भी यही है कि ईश्वर ने प्रत्येक मानव को यह अद्भुत ज्ञान उदारता से दिया है लेकिन हम स्वंय निर्मित मायाजाल में उलझ कर इस ज्ञान से बहुत दूर चले जाते है इतनी दूर की फिर लौटने के लिए हम किसी का सहारा ढूंढने लगते हैं ये ऐसा ही जैसे हम अपने घर से बहुत दूर चले जाएं और भूलभुलैया भरे रास्तों में उलझ जाएं तो अपने ही घर वापस आने के लिए किसी गूगल या गाइड या मार्गदर्शक की जरूरत महसूस करने लगते है, वैसे ही आत्मज्ञान प्राप्ति के लिए वो कोई गुरु, महात्मा, सन्त, ज्ञानी जो आपसे कड़ी तपस्या करवाये, घण्टों प्रवचन सुनाए, आपसे सैकड़ों गर्न्थो का अध्ययन करवाये और यह सब करने के बाद जब वो आपको यह बात कहता है कि धर्म मतलब सत्कर्म तो आप इस बात को समझते है, स्वीकारते है (जो कि आपको पहले से ही मालूम थी) और आपको महसूस होता है कि आपने परम् ज्ञान प्राप्त किया है ।

राजकुमार जैन

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