सह अस्तित्व और जीवन मूल्यों

सह अस्तित्व और जीवन मूल्यों
का मर्मस्पर्शी लोकपर्व: बहुला चौथ
समाज-संस्कृति/जयराम शुक्ल

लोकपर्व और व्रत कथाएं सनातन से चली आ रही उदात्त संस्कृति के साक्षात् दर्शन हैं। उसमें निहित संदेश समाज को संजीवनी शक्ति देते हैं। इस समाज में सिर्फ़ मनुष्य ही नहीं वरन् पेंड़-पौधे, वनस्पतियां, पशु-पक्षी, जीवजंतु, नदी, वन-पर्वत भी जीवंत स्वरूप में हैं।

आज महत्वपूर्ण व्रतपर्व बहुला चौथ है। हरछठ से दो दिन पूर्व भाद्रपद कृष्णपक्ष चतुर्थी को मनाया जाता है। हमारी माता-बहनें संतान और भाई के कुशल क्षेम के लिए रखती हैं।

महत्वपूर्ण यह कि गणेश जी के पूजन के साथ ही गाय-बछड़े और बाघ की भी पूजा होती है। कथा में भी यही पात्र हैं। यह लोकपर्व देश के प्रायः हर हिस्से में मनाया जाता है। देश-काल और समाज के हिसाब से कथाओं में थोड़ा बहुत अंतर जरूर मिलता है। हमारे विंध्य में अवधी का असर है तो छत्तीसगढ़ में वनसंस्कृति का प्रभाव ज्यादा है। निमाड़- मालवा में लोकपर्व अलग महत्व रखता है।

इस व्रतकथा को लेकर सभी अंचलों में लोकगीत हैं..जो आज भी ध्वनित होते हैं..।

संक्षेप में बहुला चौथ की व्रत कथा कुछ इस तरह है-

जंगल चरने गई गाय से बाघ का सामना हो गया। बाघ शिकार करने ही वाला था कि गाय ने उससे विनती शुरू कर दी,बोली- आज मुझे मत खाओ, घर में मेरा बछड़ा भूखा इंतजार कर रहा होगा, मैं जाकर उसे अपना दूध पिला आऊं फिर मुझे खा लेना।

बाघ बोला-तू मुझे बुद्धू बना रही है, क्या गारंटी कि तू लौटके आएगी ही। कातर स्वर से गाय बोली- भैय्या मैं अपने बछडे़ की कसम खाती हूँ उसे दूध पिलाने के बाद पल भर भी नहीं रुकूंगी, मेरा विश्वास मानो भैय्या।

गाय के मुँह से भैय्या का शब्द बाघ के अंतस को छू गया, फिर भी बाघ तो बाघ। गाय ने फिर अश्रुपूरित स्वरों में कहा-आप जंगल के राजा जब आप ही मेरी बात का विश्वास नहीं करेंगे तो फिर क्या कहें, अब आपकी मर्जी।

इस बार बाघ कुछ पसीजा बोला- जा बछडे़ को दूध पिला आ, पर लौटके आना जरूर। गाय जंगल से भागती, रँभाती गांव पहुंची। बछडे़ से कहा चल जल्दी दूध पी ले।

बछडे़ को संदेह हुआ कि कुछ न कुछ बात जरूर है। वह बोला- माँ ..मेरी कसम,पहले सच सच बताओ क्या बात है तभी थन में मुँह लगाऊंगा। गाय ने बाघ वाली पूरी बात बता दी।

बछडे़ ने कहा- चिंता की कोई बात नहीं माँ कल सुबह मैं तुम्हारे साथ चलूंगा। कैसे भी रात बीती। पूरे गांव को गाय और बाघ की बात पता चल गई। वचन से बँधी गाय बाघ की मांद की ओर लंबे डग भरते हुए चल दी। बछड़ा आगे आगे।

बाघ ने दूर से देखा कि गाय तय वक्त से पहले ही आ रही है। जाकर गाय बाघ के सामने स्वयं को शिकार के रूप में प्रस्तुत किया। बछड़ा चौकड़ी भरता बीच में आ गया। बोला- बाघ मामा मुझे खा लो माँ को छोड़ दो, माँ बची रही तो आपके लिए मेरे जैसे शिकार पैदा करती रहेगी।
बाघ ने पूछा- ऐ बछड़े ये बता ऐसी मति तुझे किसने दी..और तेरे कान में कहा?
बछड़ा बोला- मति तो मैहर वाली माँ शारदा ने दिया और माँ कालिका ने ऐसा बोलने को कहा।

माँ दुर्गा का वाहक बाघ यह सुनकर सन्न रह गया। उसकी आँखों आँसू आ गए, गाय से बोला-जा बहना जा, भाँन्जे का ख्याल रखना। बाघ ने अभयदान देते हुए कहा- कि आज से यह वन-पर्वत तेरा भी है अब निर्भय होकर यहाँ चर-विचर सकता है। इधर समूचा गांव ताके बैठा था कि क्या होगा..।

गोधूली बेला में जंगल से बछड़े के साथ सही सलामत आती गाय को देखकर सभी की जान में जान आई। घरों में चना जैसे कच्चे अन्न से गाँव वालों का उपवास टूटा।

तभी से बहुला चौथ की ब्रत अपनी परंपरा में आया, जिसमें माँ,बहने अपने भाई के कुशलमंगल के लिए यह ब्रत रखती हैंं। गाय बाघ के कुशलमंगल और दीर्घायु के लिए ब्रत रखे..विश्व के किसी विचार दर्शन और कथानक में इसकी कल्पना नहीं की जा सकती।

लोकपरंपरा के विद्वान डा. चंद्रिका चंद्र ने इससे जुड़ा एक लोकगीत साझा किया जिसे हमारी माँ-बहनें कर्णप्रिय कजली के रूप में गाती हैं..इसमें विंध्य और मैहर का उल्लेख आता है। रिमही बोली में यह लोकगीत इस तरह है-

एकु बम्हनवा के सुरहिन गैय्या
पै चरइ नदन वन जाइउ हो ना..

एकु बन जाइ दुसर बन जाइ
तिसरे बने ना..
उहै बिंझ के पहारी तिसरे बने ना..

जबहिन के मथवा ओनामा
पै सिंहा गरजइ हो लागे ना…

आजु के दिनमा तु छोंड़ा मोरे सिंहा, घरे बाँधे बछोलना हमौरो हो न…

गइया जाति चतुर मोहे लागै
ठगे हो डारै ना..
मोर मिला रे अहरवा ठगे हो डारै ना..

बछड़ू कै किरिआ करब मोर भैय्या,पै लउटि के अउबै पहरवौ हो ना…

अने दिना माया मोरी हँकुरत आवाँ, आजु काहे अनमन ठाढ़ी हो ना…

आबा बछोलन तु थने मोरे लगि जा पै सिंहा से हारेंउ बतिअउ
हो ना..

हारउ दुधवा न पीवै मोरी माया पै हमहूँ चलब तोहरे संघे हो ना..

एकु बन गईं दुसर बन गईं तिसरे बने ना..बिंझ के पहारिया तिसरे हो बने ना…
पहुंचे सिंह के पहरी तिसरे हो बने ना…

पहिले तु मामा हमका हो भखि ले फेरि पीछे माया हमारिउ हो ना…

ऐ हो बछोलन तोहका के मति दीन्हिन के हो तोहरे काने कहिन ना..

मैहरवाली माता मोहिं मति-बुधि दीन्हिन पै कालिका मोरे काने लागिउ हो ना…

छिटिकि चला बछड़ू कदली के बन मा अब ई बन आय तोंहारउ हो ना….

यही कथा बुंदेलखंड के लोकगीतों में इस प्रकार गाई जाती है—

घरई से जिकरी सुरहन गइया,
चरन नंदन बन जाये हो माय।

एक बन ताँकी, दुइज बन ताँकी,
तिज बन पोंची जाए॥

चंपा हो चरलई, चमेली चरलई,
चरलई सब फुलवार हो माय।

जब सुख डारे चंदन बन बिरछा,
सिंगा उठे हो गुंजार हो माय॥

मोये जिन भकिये सिंघ के बारे।
छाछला मर नादान हो माय॥

छत्तीसगढ़ के सुआनाच में इसे यों गाया जाता है—

आगू-आगू हरही, पीछू-पीछू सुरही
चले जाथे कदली कछार।
एक बन जइहे, दूसर बन जइहै
तीसर म सगरी के पार॥

एक मुँह चरिन, दूसर मुँह चरिन,
के बघवा उठय घहराय।
हा-रहा सिंघमोर, रहा-रहा बघवा,
पिलवा गोरस देहे जाव॥

कोन तोर सखी, कोन तोर सुमित्रा
कउन ला देवे तै गवाह।
चंदा मोर सखी, सुरूज मोर सुमित्रा
धरती ला देहौं रे गवाह॥

एक बन अइहै, दूसर बन अइहै
तीसर म गाँव के तीर।
एक गली नाहकै, दूसर गली नाहकै,
तीसर म जाइ ओल्हियाय॥

यही कथा थोड़े बहुत अंतर के साथ मूल भाव यथावत् स्वरूप में निमाड़ी लोकगीत में प्रचलित है, उस क्षेत्र में इसे गोवत्स की पूजा के साथ दीवाली पूर्व द्वादशी को गाए जाने का प्रचलन है।

निमाड़ी लोकगीत में यों वर्णित है—

बिंद्रा जो बन की, चरती जो गाय,
सारो बिंद्रावन चरी आई जी,
पहिलो हम्मर गउवा काकड़ म दीयो,
दूर हम्मर गौआ धोइया का माँही।

तीसर हम्मर गौआ, पनघट पर दीयो,
चौथो हम्मर गौआ, दीयो आँगण का माही।

पेवो-पेवो रे बधुवा सवा घड़ो दूध,
आज को दुध बछुआ दोवलो जी।

रोज चरता था बछुआ मधुवन म,
आज गया बछुआ जंगल म,
जंगल म रे बछुआ म्हार को डर
न्हार ख भेटी न आइज घर
आज को दूध बछुआ दोवलो॥

अर्थात् वृंदावन में चरनेवाली गाय, आज सारा वृंदावन चर आई है। पहली पुकार उसने गाँव की सरहद पर दी और पुकार गोहे पर लगाई। तीसरी पुकार पनघट पर की और दूसरी-चौथी पुकार में घर के आँगन में आ पहुँची एवं अत्यंत व्यग्रता से बोली, ‘‘हे बच्चे! पियो-पियो आज तुम मेरा सवा घड़ा दूध पी लो। आज का दूध बहुत दुर्लभ है। हे बछुए, रोज मैं मधुवन में चरती थी आज जंगल चली गई। जंगल में शेर का डर रहता है और मेरी उससे भेंट हो ही गई। तुम आज दूध पी लो।’’

शेर से बछड़े को दूध पिलाने की अनुमति लेकर वापस लौटने को वचन देकर वह गाय, बछड़े को दूध पिलाकर पड़ोसियों से कहती है—

पड़ोसेन बाई तुम्हारी माय,
म्हारा बछुआ जतन सी राख।

उढ़ाला म ओ बईण, छावला म बाँध जे,
इंडो सो नीर मेवाड़ जे,
बरसात म ओ बईण ओसरा का बाँध जे
हरया लई दूब खवाड़जे।

आग लग्यो बछुआ य पाछ लगी गाय,
दुई मिली न जंगरन म जाय।

‘भरवो-भरवो मामाजी, पहेल म्हारो मांस
फिरी भरवो म्हारी माय को मांस।’

‘कुणन दीया रे बछुआ, सीखन बोध,
कहाँ का पंडित न पढ़यो।’

‘राम न दी मय सीखन बोध,
राम न पंडित पठायो पाठ’
‘जाओ-जाओ बईण-माणिज अपठाज घर,
आज मुमन मरव जीती लियो जी।’

हे पड़ोसन बहन! तुम मेरी माँ के समान हो, मेरे बच्चे को सँभालकर रखना। देखो, गरमी में इसे छाँह देना और ठंडा सा पानी दिया करना तथा सुनो, इसे बरसात में ओसारे में बाँधकर हरी-हरी दूब खिलाना—इसमें ममता का कितना मर्मस्पर्शी चित्रण है।

लेकिन बछड़ा नहीं मानता वह भी माँ के साथ शेर से मिलने चल देता है। आगे-आगे बछड़ा और पीछे -पीछे माँ, दोनों मिलकर जंगल जा रहे हैं। शेर के पास पहुँचकर बच्चे ने युक्तिपूर्वक कहा, ‘‘हे मामाजी! खाओ-खाओ, पहले मेरे मांस को खाओ, फिर मेरी माता के मांस का भक्षण करना।’’

मामा शब्द सुनते ही शेर के मन में मानवीय करुणा और भानजे के प्रति प्रेमभाव जाग्रत् हो गया। भावाभिभूत होकर उसने कहा, ‘‘रे बछुए! तुझे किसने यह ज्ञान बोध दिया? किस पंडित ने यह पाठ पढ़ाया?’’ बछड़ा बोलता है, ‘‘राम ने मुझे ज्ञान का बोध कराया और राम पंडित ने ही पाठ पढ़ाया है।’’ सिंह कहता है, ‘‘जाओ-जाओ बहन-भानजा, अपने घर जाओ। आज तुमने मुझे जीत लिया है।’’

यह है हमारी अरण्यसंस्कृति, हमारी ल़ोकधारा जो जंगल से वन्यजीवों के बीच से फूटती है।

वन्यजीव सरकारी सप्ताह के आयोजनों से नहीं बचेंगे।
हमारी संस्कृति और परंपरा ही बचा सकती है इन्हें। जंगल को सुनऩे व देखने की श्रवणग्राहिता और दृष्टिक्षमता लानी होगी और वह जंगल के सरकारी कानूनों से नहीं आने वाली।

संपर्कः 8225812813

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