विदेश नीति

लोकमत समाचार में आज
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हमारी विदेश नीति में परदेसी दिलचस्पी
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राजेश बादल
ख़बरें चिंता बढ़ाने वाली हैं।चीन और अमेरिका के बीच तनाव चल ही रहा था। कोरोना काल में यह और गंभीर हो गया। भारत के साथ चीन हिंसा पर उतर आया। उसके बाद से कूटनीति और युद्ध नीति का मैदान फैलता जा रहा है। संसार के सरपंच और एशिया के स्वयंभु चौधरी आमने सामने हैं। दोनों महा शक्तियों के बीच टकराव की स्थिति में कोई भी तीसरा देश शान्ति और मध्यस्थता की पहल नहीं कर रहा है। इसका अर्थ यह है कि मौजूदा विश्व परिदृश्य अब दो खेमों में बँटता दिखाई देने लगा है।भारत और रूस ही ऐसी स्थिति में कोई बीच बचाव का रास्ता निकाल सकते थे ,लेकिन चीन को लेकर दोनों देशों में कोई आम सदभावना नहीं नज़र आ रही है। चीन का भारत से छल – कपट का व्यवहार तथा रूस के साथ दोस्ती के नाम पर मुसलसल पैंतरेबाज़ी ने समीकरणों में निर्णायक उलट पुलट के हालात बना दिए हैं।याने अब क़रीब क़रीब प्रत्येक देश को अपनी भूमिका का चुनाव करना ही पड़ेगा। आज के दौर में तटस्थता बनाए रखना बहुत आसान नहीं है ।
इस सारे घटनाक्रम के मद्देनज़र भारत के लिए अनेक मामलों में चुनौतियाँ नए अवतार के रूप में प्रस्तुत हैं।हिन्दुस्तानी विदेश मंत्री कह चुके हैं कि अब गुट निरपेक्षता का ज़माना चला गया। याने विदेश नीति में बदलाव वक़्त की माँग है।अलबत्ता वे स्पष्ट कर चुके हैं कि हिन्दुस्तान कभी किसी गुट का हिस्सा नहीं बनेगा। दूसरी ओर अमेरिका कह चुका है कि वह चीन के ख़िलाफ़ गठबंधन बनाना चाहता है।ज़ाहिर है भारत को इसमें शामिल किए बिना ऐसे किसी गठजोड़ का कोई अर्थ नहीं है।इस बयान को भारत के लिए न्यौता भी माना जा सकता है।विदेश मंत्री जयशंकर की प्रतिक्रिया भी इसी सन्दर्भ से जोड़कर देखी जा सकती है। इस तरह का कोई भी गठबंधन चीन के विरोध में जंग भरी कार्रवाई के लिए अपनी धरती का इस्तेमाल करने का लायसेंस भी चाहेगा।यह भारत के लिए किसी भी सूरत में उचित नहीं होगा।शायद इस कारण भी चीन ने शत्रु देश होते हुए भी भारत को आग़ाह किया है कि वह अपनी परंपरागत गुट निरपेक्ष नीति नहीं छोड़े।इसमें आप छिपी हुई धमकी भी देख सकते हैं। इसके पीछे चीन का अपना भय भी है। यदि अमेरिका ने चीन के चारों ओर छोटे -बड़े चार सौ सैनिक स्टेशन बनाए हुए हैं तो वे यक़ीनन चीन को किसी धार्मिक अनुष्ठान के लिए प्रेरित करने वाले नहीं हैं।यदि भारत गठबंधन में शामिल हुआ तो चीन की मुश्किलें कम नहीं होंगीं।
लेकिन क्या चीन को अब इस तरह हिन्दुस्तान को सलाह देने का कोई नैतिक अधिकार रह गया है ? शायद नहीं।मान लीजिए कि चीन के विरुद्ध आकार ले रहे गठबंधन में यदि भारत शामिल हो गया तो स्थिति को यहाँ तक पहुँचाने के लिए भी वही ज़िम्मेदार है।क्या भारत के लिए भूलना संभव है कि चीन ने पाकिस्तान को अपने नागपाश में ज़बरदस्त तरीक़े से जकड़ रखा है।वह जब तब भारत के ख़िलाफ़ उसका प्रयोग करता है। क्या भारत इस तथ्य की उपेक्षा कर सकता है कि चीन ने सदियों से भारत – नेपाल के रिश्तों की जड़ों में मट्ठा डालने का काम किया है। क्या भारत नज़र अंदाज़ कर सकता है कि चीन ने भारत से निकले बौद्ध धर्म के उपासक श्रीलंका को अपने चक्रव्यूह में फाँस लिया है। क्या भारत आँख मूँदकर बैठा रहे कि चीन म्यांमार ,बांग्लादेश और भूटान के साथ पींगें बढ़ा रहा है और वह भी भारत के संबंधों की क़ीमत पर। अर्थात चीन यदि भारत की घेराबंदी करे तो वह जायज़ है और जब उसे लगे कि भारत उसके विरोध में शक़्ल ले रहे किसी गठजोड़ का हिस्सा बन रहा है तो वह भारत को अपनी पुरानी विदेश नीति पर ही चलने की बिन माँगी सलाह देने पर उतर आए। यह तो किन्ही भी दो सभ्य देशों के बीच स्वस्थ्य रिश्तों का आधार नहीं हो सकता।भारत को भी उसी शैली में चीन को उत्तर देना चाहिए कि चीन भी परंपरागत विदेश नीति में तब्दीली करे और पाकिस्तान तथा उसके मार्फ़त पाल पोस रहे आतंकवाद को संरक्षण देना बंद करे ।
भारतीय विदेश नीति में सिर्फ़ अमेरिका और चीन की दिलचस्पी ही नहीं है।ब्रिटेन ,फ्रांस ,जापान ,ईरान और तुर्की की रूचि भी कम नहीं है। भारत की तरह ब्रिटेन का कारोबार भी चीन के साथ बीते दिनों में परवान चढ़ा था।लेकिन बदलते हाल में उसने भी चीन के साथ अपने पैर खींचे हैं। हांगकांग के मसले पर भी वह चीन से खुश नहीं है। ब्रिटेन यह भी देख रहा है कि अगर चीनी बाज़ार उसके हाथ से फिसला तो भारत के उपभोक्ता उसके साथ आ सकते हैं।इसी तरह रूस ने अब चीन को एस – 400 मिसाइल डिफेन्स सिस्टम की डिलीवरी रोक दी है।अभी तक वह भारत,तुर्की और चीन को यह सिस्टम दे रहा था। वह पुराने मित्र भारत को ख़फ़ा नहीं करना चाहता।इसके अलावा हिन्दुस्तान की आक्रामक विदेश नीति को देखते हुए उसने संतुलन दिखाने का प्रयास किया है।वैसे भी वह चीन से अतीत में कई चोटें खा चुका है।इसलिए भारत की चीन के प्रति नीति उसे परेशान नहीं करती।रूस का रक्षा उपकरणों पर भारत के साथ बड़ा कारोबारी अनुबंध है।फ्रांस ने राफ़ेल की पहली खेप भेज दी है और आने वाले समय में यह व्यापार बढ़ने वाला है।सिर्फ़ ईरान ही अकेला मुल्क़ है ,जो अनिच्छा पूर्वक चीन के पाले में जाता दिखाई दे रहा है। मगर उसकी वजह भारत नहीं ,बल्कि अमेरिका है। जिस दिन भारत ने ईरान से तेल आयात शुरू कर दिया,संबंध सामान्य होने लगेंगे।भारत यदि अमेरिका को ईरान के मसले पर नरम रवैया अख़्तियार करने के लिए तैयार कर लेता है तो यह बड़ी क़ामयाबी होगी।आज अमेरिका के लिए ईरान के बजाय चीन से निपटना बड़ी प्राथमिकता है। ले देकर तुर्की बचता है। इन दिनों तुर्की संयुक्त राष्ट्र की साधारण सभा का अध्यक्ष है।रविवार की रात संयुक्त राष्ट्र की इसी टीम को पाकिस्तान पहुँचना था , लेकिन अंतिम क्षणों में यह दौरा रद्द कर दिया गया।पाकिस्तान ने इस टीम के सामने कश्मीर का मसला ज़ोर शोर से उठाने की बड़ी तैयारी की थी। पर इस बदले घटनाक्रम पर तुर्की की भी नज़र है।फिलवक़्त वह पाकिस्तान के लिए बड़ी ताक़तों से बिगाड़ नहीं करना चाहेगा।

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