एमपी। 2027 में सीधे जनता करेगी नगर पालिका और नगर परिषद् अध्यक्षों का चुनाव , सरकार एक बार फिर कर रही है नगर पालिका एक्ट में बदलाव; फिर लागू होगा राइट टू रिकॉल – देखें VIDEO

साल 2022 में हुए नगरीय निकाय चुनाव में केवल महापौर का डायरेक्ट इलेक्शन हुआ था। नगर पालिका और नगर परिषद् के अध्यक्षों का चुनाव इन डायरेक्ट यानी अप्रत्यक्ष प्रणाली से हुआ था।

मध्यप्रदेश में 2027 में होने वाले नगर पालिका और नगर परिषद् के चुनावों में अध्यक्षों को पार्षद नहीं, अब सीधे जनता चुनेगी। डॉ. मोहन यादव सरकार एक बार फिर नगर पालिका एक्ट में बदलाव करने जा रही है।

इसका ड्राफ्ट नगरीय विकास एवं आवास विभाग तैयार कर रहा है। इसके बाद इसे कैबिनेट बैठक में पेश किया जाएगा। यदि ऐसा हुआ तो एमपी में सभी निकायों के चुनाव प्रत्यक्ष प्रणाली से होंगे। उधर, सीएम के निर्देश पर पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग भी जिला और जनपद पंचायत अध्यक्षों के डायरेक्ट इलेक्शन का ड्राफ्ट तैयार कर रहा है।

साल 2022 में हुए नगरीय निकाय चुनाव में केवल महापौर का डायरेक्ट इलेक्शन हुआ था। नगर पालिका और नगर परिषद् के अध्यक्षों का चुनाव इन डायरेक्ट यानी अप्रत्यक्ष प्रणाली से हुआ था। जनता के जरिए चुने गए पार्षदों ने इनका चुनाव किया था।

दरअसल, पिछले पांच साल में नगर पालिका एक्ट में ये चौथी बार बदलाव किया जा रहा है। इससे पहले 2019 में कमलनाथ सरकार ने इसमें बदलाव किया और नगर निगम, नगरपालिका और नगर परिषद् के चुनाव अप्रत्यक्ष प्रणाली से कराने का फैसला किया था।

 

इसके बाद शिवराज सरकार ने इसमें दो बार बदलाव किया। पहली बार में मेयर और अध्यक्ष दोनों का इलेक्शन डायरेक्ट करने का फैसला लिया था लेकिन राजनीतिक परिस्थितियों की वजह से दूसरी बार में आंशिक बदलाव करते हुए केवल मेयर के चुनाव डायरेक्ट करवाए थे। अब मोहन सरकार डायरेक्ट इलेक्शन का फैसला क्यों ले रही है, जानिए इसकी वजह…

दो पॉइंट्स में जानिए, मोहन सरकार क्यों कर रही बदलाव…

1. बीजेपी नेताओं ने ही मौजूदा अध्यक्षों के खिलाफ खोला मोर्चा

कमलनाथ सरकार ने अप्रत्यक्ष प्रणाली से अध्यक्षों के चुनाव का जो फैसला लिया था, उसमें राइट टू रिकॉल के प्रावधान को हटा दिया था। यानी पार्षद ही अध्यक्ष के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाकर उसे हटा सकते थे। इसमें नियम ये था कि वे अध्यक्ष के चुनाव के दो साल बाद ही अविश्वास प्रस्ताव ला सकते थे।

इस नियम के चलते इसी साल सिवनी की केवलारी, गुना की चाचौड़ा, मुरैना की बानमोर नगर परिषद्, सागर की देवरी, नर्मदापुरम, टीकमगढ़, दमोह नगर पालिका समेत एक दर्जन से ज्यादा नगर पालिका और परिषद् अध्यक्षों के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाए गए। इनमें से ज्यादातर नगरीय निकायों में बीजेपी के अध्यक्ष काबिज थे और इन्हें हटाने की तैयारियां कर ली गई थीं।

अपने ही नेताओं के मंसूबों को भांपते हुए सरकार ने नगर पालिका अधिनियम 1961 की धारा 43(क) में बदलाव किया। इसमें अविश्वास प्रस्ताव दो साल की बजाय तीन साल में लाने का प्रावधान कर डैमेज कंट्रोल करने की कोशिश की। हालांकि, अगले साल फिर इन अध्यक्षों के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया जा सकता है।

नगर पालिका-निगम एक्ट 1961 की धारा 47 के तहत राइट टू रिकॉल का नियम लागू होता है। यदि पार्षद, नगरपालिका-परिषद् अध्यक्ष या नगर निगम मेयर, जनता की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरते तो उन्हें वापस बुलाने का नियम लागू होता हैं।

2. पार्टी संगठन चाहता है जनता चुने मेयर और अध्यक्ष

बीजेपी संगठन चाहता है कि मेयर और अध्यक्ष को सीधे जनता चुने न कि पार्षद। दरअसल, जब कमलनाथ सरकार ने नगरीय निकाय के मेयर और अध्यक्षों को अप्रत्यक्ष प्रणाली से चुने जाने का प्रस्ताव पास किया था, तब बीजेपी ने इसका विरोध किया था।

संगठन का मानना था कि भले ही निकाय में पार्टी के पार्षदों की संख्या कम हो लेकिन मेयर और अध्यक्ष यदि पार्टी का होता है तो ये शहर के डेवलपमेंट के लिहाज से मुफीद है। बीजेपी बजाय पार्षदों के, अध्यक्ष और मेयर के इलेक्शन पर फोकस करती है। इससे जनता के बीच एक अलग मैसेज जाता है।

जिस समय कमलनाथ सरकार ने ये प्रस्ताव पास किया था, उस समय इंदौर के पूर्व मेयर कृष्णमुरारी मोघे नगरीय निकाय समिति के अध्यक्ष थे। उन्होंने कहा था कि पार्षदों के जरिए मेयर और अध्यक्ष का चुनाव कराए जाने से पारदर्शिता कम हो जाएगी। खरीद-फरोख्त के जरिए मेयर और अध्यक्ष चुने जाएंगे। मेयर और अध्यक्ष जनता के प्रति जवाबदेह न होकर पार्षदों को संभालने में ज्यादा वक्त देंगे।

 

शिवराज सरकार ने केवल मेयर के डायरेक्ट इलेक्शन क्यों कराए

कमलनाथ सरकार गिरने के बाद तत्कालीन शिवराज सरकार ने अध्यक्ष और मेयर का चुनाव डायरेक्ट कराने का फैसला किया था, लेकिन अध्यादेश को डेढ़ साल तक विधानसभा में पारित नहीं कराया। जब नगरीय निकाय के चुनाव नजदीक आए तो 26 मई 2022 को इसमें आंशिक संशोधन करते हुए केवल मेयर के इलेक्शन डायरेक्ट कराए।

सूत्र बताते हैं कि नगर पालिका-परिषद् अध्यक्षों के इन डायरेक्ट इलेक्शन का फैसला शिवराज सरकार ने विधायकों के दबाव में लिया था। नगर पालिका-परिषद् अध्यक्ष जनता के जरिए सीधे चुने जाते हैं तो वे विधायक से ज्यादा पावरफुल हो जाते हैं। वे विधायकों के दबाव में नहीं रहते। शहरी क्षेत्र के विधायकों को अपने क्षेत्र में विकास कामों के लिए उन पर निर्भर रहना पड़ता है। इसी तरह का मामला मेयर के साथ भी है।

एक्सपर्ट बोले- लोकतांत्रिक प्रक्रिया में डायरेक्ट इलेक्शन की व्यवस्था नहीं

वरिष्ठ पत्रकार एनके सिंह कहते हैं कि शहरों की सरकार के चुनाव डायरेक्ट कराने के राजनीतिक और प्रशासनिक पहलू अलग-अलग हैं। राजनीतिक पहलू ये है कि बीजेपी नगरीय निकायों के मेयर-अध्यक्ष के चुनाव आसानी से जीत जाती है। पिछले 20-25 सालों के चुनावी इतिहास को देखें तो ज्यादातर बड़े शहरों में बीजेपी के ही मेयर और अध्यक्ष बनते रहे हैं।

बीजेपी को लगता है कि चुनाव की प्रत्यक्ष प्रणाली ज्यादा कारगर है। वहीं, कांग्रेस को लगता है कि उनके लिए डायरेक्ट इलेक्शन जीतना संभव नहीं है इसलिए कमलनाथ सरकार ने अध्यादेश लाकर प्रत्यक्ष प्रणाली से होने वाले चुनावों को अप्रत्यक्ष कराया था। न केवल कमलनाथ बल्कि छत्तीसगढ़ की भूपेश बघेल सरकार ने भी इस व्यवस्था में बदलाव किया था।

वहीं, इसका प्रशासनिक या लोकतांत्रिक पहलू अलग है। भारत ने आजादी के बाद ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था को अपनाया है। जिसमें अमेरिका की तरह डायरेक्ट इलेक्शन की परंपरा नहीं है। हमारे देश में मुख्यमंत्री हो या प्रधानमंत्री वह सभी अप्रत्यक्ष प्रणाली से चुने जाते हैं।

केवल राष्ट्रपति का चुनाव डायरेक्ट होता है, हालांकि वहां भी विधायिका ही चुनाव करती है। हमारे यहां जिम्मेदार पदों पर जो लोग बैठे हैं, उन्हें लोकतांत्रिक तरीके से ही पावर दिए गए हैं।

भोपाल में पार्षदों द्वारा चुने गए अंतिम महापौर थे उमाशंकर गुप्ता

1998-1999 से अविभाजित मध्यप्रदेश में (वर्ष 2000 से पहले छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश का ही हिस्सा था) नए अधिनियम के तहत महापौर व अध्यक्ष प्रत्यक्ष प्रणाली से जनता द्वारा चुने जाने लगे। विभाजन के बाद छ्त्तीसगढ़ ने भी इसी व्यवस्था को अपनाया।

भोपाल में 1994 में बीजेपी के उमाशंकर गुप्ता महापौर बने थे, जिन्हें पार्षदों ने चुना था। जबकि 1999 में सीधे जनता से चुनी गई कांग्रेस की विभा पटेल पहली महापौर थीं।

 

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