सनातन धर्म में ‘भिखारी’ जैसे शब्दों की जगह नहीं…कौशल किशोर चतुर्वेदी

सनातन धर्म में ‘भिखारी’ जैसे शब्दों की जगह नहीं…

‘भिखारी’ शब्द के एक सामाजिक कार्यक्रम में प्रयोग ने इन दिनों मध्यप्रदेश में बहस को जन्म दे दिया है। हालांकि जब कोई मामला तूल पकड़ता है तो सबसे पहले यही कहा जाता है कि बयान को तोड़ मरोड़कर पेश किया गया है। और सब कुछ एकदम साफ होने के बाद भी ‘तोड़ने-मरोड़ने’ का विषपान भोले-भाले लोगों को करना ही पड़ता है। और ऐसे आरोपों का सीधा जवाब नहीं दिया जाता है। बात मुद्दे की करें तो दरअसल मांगने वालों की भीड़ सत्ताधारी समर्थों के आसपास ही जुटती है। और सत्ता का मतलब ही ‘सेवकों का झुंड’ है और इन ‘सेवकों’ का परम लक्ष्य ही मतदाता रूपी जन-जन की सेवा करना ही है। और मंचों से अक्सर नेताओं के मुंह से यही सुना जाता है कि ‘मैं सेवक, तुम स्वामी’ ‘तुम भगवान और मैं हूं पुजारी’ वगैरह वगैरह। लोकतंत्र की व्यवस्था ही ‘जनता की, जनता के द्वारा और जनता के लिए’ रूप में ही परिभाषित है। और संवैधानिक पद पर आसीन कोई कैबिनेट मंत्री अपने ऐसे किसी बोलों को समाज के दायरे में सीमित नहीं कर सकता। क्योंकि ऐसे पदों का विस्तार ही लोक तक होता है। ऐसे में समाज और गैर समाज सब लोक में ही समाहित हैं।

खैर ऐसी बहस के बीच सुंदरकांड का एक दोहा याद आ रहा है।

‘जो संपति सिव रावनहि, दीन्हि दिएँ दस माथ।

सोइ संपदा बिभीषनहि, सकुचि दीन्हि रघुनाथ॥’

अर्थात जो संपत्ति रावण को शिवजी ने दस सिरों की बलि चढ़ाने पर दी थी, वही संपदा श्री रघुनाथजी ने विभीषण को बड़े संकोच के साथ दी। लंका का राज विभीषण को देते समय रघुनाथ जी यह सोचते रहे कि मैंने इस शरणागत भक्त को तुच्छ वस्तु ही दी है।

तो देने का भाव भगवान राम से सीखा जा सकता है। राम ने ऐसा कभी नहीं कहा कि विभीषण तुमने मांगा नहीं, तब भी मैंने तुम्हें यह भीख में दे दिया। आगे भी कह सकते थे कि तुम्हारा भाई रावण भी तो जानकी से भीख मांगने ही आया था। जानकी ने भीख देने के लिए ही तो लक्ष्मण रेखा लांघी थी। राम यानि तीनों लोकों के स्वामी कितने विनम्र हैं, दयालु हैं और करुणा के सागर हैं…जो सब कुछ देने के बाद भी संकोच करते हैं कि मैं शरण में आए भक्त को बस तुच्छ वस्तु ही दे पा रहा हूं। और कलियुग की यह सत्ता और लोकतंत्र का नजारा देखो कि बिना कुछ दिए ही यह कहा जा रहा है कि आजकल लोगों को सरकार से भीख मांगने की आदत पड़ गई है। सनातन के मानने वालों को यह समझना ही चाहिए इसमें देने वाला खुद को तुच्छ मानता है और लेने वाले को उपकारी ही माना गया है। त्रेतायुग में राम का यह उदाहरण सब कुछ साफ कर देता है।

और द्वापर युग में कृष्ण और सुदामा का प्रसंग तो किसी से छिपा ही नहीं है। गरीब सुदामा चावल की पोटली लेकर द्वारिका गए थे। पत्नी ने कहा था कि जाओ अपने मित्र कृष्ण से ही कुछ मांग लाओ ताकि दरिद्रता दूर तो हो। और पत्नी ने घर में पड़े दो-तीन मुट्ठी चावल भी दे दिए कि मित्र के यहां खाली हाथ मत जाओ कुछ तो ले जाओ। और वह तीनों लोकों के स्वामी कृष्ण जो सब जानते हैं कि दरिद्र सुदामा हमसे कुछ मांगने आया है। पर यह भाव है तीनों लोकों के स्वामी उन समर्थ का, कि दौड़े-दौड़े महलों से उतरकर आए और सुदामा को ले जाकर सिंहासन पर बिठा दिया। उनके चरण पखारे। और जो चावल की पोटली सुदामा संकोच में अपनी काखरी में छिपा रहे थे, उसे अपने हाथों में ले लिया। और अश्रु बहाते हुए वह चावल खाने लगे। एक मुट्ठी खाए, दो मुट्ठी खाए और तीसरी मुट्ठी खाने को हुए तो रुकमणि ने हाथ पकड़ लिया कि प्रभु खुद के रहने के लिए कुछ तो बचने दो। यह धन्यता है सनातन की। यह समर्थता है सनातन की। यह दिव्यता है सनातन की। कि सनातन धर्म में ‘भिखारी’ जैसा भाव कहीं भी नहीं आ पाता है। ‘मां भिक्षामि देहि’ शब्द अगर कानों तक पहुंच गया तो घर की लक्ष्मी मांगने वाले को बिना कुछ दिए जाने नहीं देगी। यह बात तय है। और उसके मुंह से यह शब्द भी नहीं सुनाई देगा कि भिखारी जिन्हें भीख मांगने की आदत पड़ गई है। तो जिस सनातन की दुहाई दी जा रही है, ऐसे में दुहाई देने वालों को कम से कम यह तो सोचना ही पड़ेगा कि आखिर उन्हें किन शब्दों का चयन करना है?

और अगर पद पर रहने वाले व्यक्ति से कोई कुछ मांग रहा है तो वह किसी ‘व्यक्ति’ से कतई नहीं मांग रहा है। और वैसे भी जब कोई पद पर नहीं रहता है, तब वह क्या देने लायक रहता है…यह सर्वविदित है। जीवन में ऐसे उतार-चढ़ाव भी पदों पर रहने वाले सभी के जीवन में आते ही हैं और पद का महत्व उतार के समय पदों पर रहने वाले हर व्यक्ति को समझ में आता है। वैसे भी किसी के लिए भी ‘भिखारी’ शब्द का उपयोग करना नकारात्मक भाव ही दर्शाता है। तो सनातन के अनुयायियों को नकारात्मकता से भरे ऐसे भावों से बचना चाहिए…जितना संभव हो सके…।

कौशल किशोर चतुर्वेदी

कौशल किशोर चतुर्वेदी मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में पिछले ढ़ाई दशक से सक्रिय हैं। दो पुस्तकों “द बिगेस्ट अचीवर शिवराज” और काव्य संग्रह “जीवन राग” के लेखक हैं। स्तंभकार के बतौर अपनी विशेष पहचान बनाई है।

वर्तमान में भोपाल और इंदौर से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र “एलएन स्टार” में कार्यकारी संपादक हैं। इससे पहले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में एसीएन भारत न्यूज चैनल में स्टेट हेड, स्वराज एक्सप्रेस नेशनल न्यूज चैनल में मध्यप्रदेश‌ संवाददाता, ईटीवी मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ में संवाददाता रह चुके हैं। प्रिंट मीडिया में दैनिक समाचार पत्र राजस्थान पत्रिका में राजनैतिक एवं प्रशासनिक संवाददाता, भास्कर में प्रशासनिक संवाददाता, दैनिक जागरण में संवाददाता, लोकमत समाचार में इंदौर ब्यूरो चीफ दायित्वों का निर्वहन कर चुके हैं। नई दुनिया, नवभारत, चौथा संसार सहित अन्य अखबारों के लिए स्वतंत्र पत्रकार के तौर पर कार्य कर चुके हैं।

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