आपातकाल के पचास साल…
भारत के राजनीतिक इतिहास में 25 जून की तारीख एक काले अध्याय के रूप में ही दर्ज है। 25 जून 1975 को भारत में तीसरे आपातकाल की घोषणा की गई थी। इस आपातकाल को सत्ता के परम वैभव को चुनौती देने वाली न्यायपालिका, विपक्ष, मीडिया और देश के हर नागरिक को प्रताड़ित करने के रूप में देखा जाता है। न्यायपालिका ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा 1971 में रायबरेली से लड़े गए चुनाव को रद्द कर दिया था और उन्हें 6 साल तक चुनाव लड़ने से रोक दिया था। और इस फैसले के खिलाफ आयरन लेडी इंदिरा गांधी लोहे की तरह कठोर होकर गरजी थी और आपातकाल लगाने के साथ संविधान संशोधन कर तत्कालीन सरकार ने न्यायपालिका को सीमित कर दिया था। मीडिया पर कड़ा प्रहार किया गया था। विपक्षियों से जेलें भर गईं थीं। और नसबंदी अभियान चलाकर देश के हर नागरिक के मन में प्रताड़ना और भय का माहौल बना दिया था। आज अगर कांग्रेस संविधान बचाओ की बात कर रही है तो 1975 से 1977 तक विपक्षी दल भी इंदिरा सरकार पर संविधान की हत्या का आरोप लगा रहे थे। और विपक्ष के यह आरोप आज भी जिंदा हैं। हालांकि कांग्रेस आज भी आपातकाल के उस दौर को तर्कसंगत ठहरने की कोशिश कर सकती है और वर्तमान भाजपा सरकार की कमियों को गिनाने की हकदार है। और 25 जून 2025 को आपातकाल के 50 साल पर कम से कम भाजपा और कांग्रेस के बीच वाद-विवाद की ऐसी स्थितियां कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं। पर इसे राजनीति की विडंबना ही माना जाएगा और राजनेताओं की इस मजबूरी को राज सिंहासन से बंधे भीष्म पितामह की मजबूरी की तरह ही देखा जाएगा। पर 1977 के चुनाव में देश के नागरिकों ने आयरन लेडी इंदिरा गांधी को आइना दिखा दिया था। और देखा जाए तो इंदिरा का वह अड़ियल रवैया ही कांग्रेस की पहली बड़ी हार की वजह बना था। तब आपातकाल के बाद देश ने पहली गैर कांग्रेसी सरकार देखी थी। तब से अब तक के 50 साल में गैर कांग्रेसी सरकारों का लंबा दौर हो चुका है। और पिछले 11 साल से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार कांग्रेस को आइना दिखा रही है। खैर 25 जून 2025 को उस तीसरे आपातकाल के 50 साल पूरे हुए हैं जिसकी आलोचना हर स्तर पर होती रही है। हालांकि इससे पहले भी युद्ध की वजह से देश दो बार आपातकाल देख चुका था लेकिन तब हर भारतवासी कांग्रेस सरकार के साथ खड़ा दिखाई दिया था। आइए हम आपातकाल और इन तीनों आपातकालों के बारे में जानते हैं।
आपातकाल सम्पूर्ण देश या फिर किसी भी राज्य की वह असंतुलित स्थिति है जिसमें संवैधानिक और प्रशासनिक संतुलन छिन्न भिन्न हो जाते हैं। भारत के संविधान में राष्ट्रपति की कुछ शक्तियों के बारे में लिखा गया है—कि राष्ट्रपति कब किस तरह की शक्ति का प्रयोग कर सकता है। उन्हीं शक्तियों में से एक शक्ति आपातकाल की है। जब सम्पूर्ण देश या किसी राज्य पर अकाल, बाहरी देशों के आक्रमण या आंतरिक प्रशासनिक अव्यवस्था आदि की स्थिति आती है तो उस समय उस क्षेत्र की सभी राजनैतिक और प्रशासनिक शक्तियाँ राष्ट्रपति के हाथों में चली जाती हैं। अब तक भारत में कुल तीन बार आपातकाल लग चुका है जिसमें वर्ष 1962, 1971 तथा 1975 में अनुच्छेद 352 के अंतर्गत राष्ट्रीय आपातकाल लगाया गया था। पहला आपातकाल 26 अक्टूबर 1962 से 10 जनवरी 1968 के बीच भारत चीन युद्ध के दौरान लगा था, जब “भारत की सुरक्षा” को “बाहरी आक्रमण से खतरा” घोषित किया गया था। दूसरा आपातकाल 3 से 17 दिसंबर 1971 के बीच भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान घोषित किया गया था। और आपातकाल की तीसरी उद्घोषणा इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में 25 जून 1975 को देश में राजनीतिक अस्थिरता की विवादास्पद परिस्थितियों में हुई थी। जब “आंतरिक गड़बड़ी” के आधार पर आपातकाल की घोषणा की गई थी। यह उद्घोषणा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक फैसले के तुरंत बाद की गई, जिसने 1971 के भारतीय आम चुनाव में रायबरेली से प्रधान मंत्री के चुनाव को रद्द कर दिया। उन्हें अपने पद पर बने रहने की वैधता को चुनौती देते हुए अगले 6 वर्षों तक चुनाव लड़ने से भी प्रतिबंधित कर दिया गया था। इंदिरा गांधी ने अपना कार्यकाल मजबूत करने के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से आपातकाल की घोषणा करने की सिफारिश की थी। यह आपातकाल 21 मार्च 1977 को खत्म हुआ था। पौने दो साल के इस आपातकाल को भारतीय लोकतंत्र में कई अध्याय के रूप में देखा जाता है।
आपातकाल की घोषणा के समय समाचार पत्र के मालिक या तो उद्योगपति थे या फिर प्रिंटिंग प्रेस के व्यवसाय से जुड़े लोग। सभी ने सरकारी लाइन का पालन किया। समाचार पत्रों को अगले दिन के संस्करण प्रकाशित करने के लिए मंजूरी मांगनी होती थी।
सरकार ने समाचार पत्रों को संपादकीय वाले कॉलम खाली छोड़ने पर भी चेतावनी जारी की थी। इंडियन एक्सप्रेस ने 28 जून 1975 के अपने संस्करण में संपादकीय खाली छोड़ा था। रिपोर्टरों को ध्यान रखना होता था कि सरकार नाराज न हो जाए। तो मीडिया का यह हाल भी काले अध्याय का एक हिस्सा था। मीडिया को लेकर दोनों दल आज भी तुलनात्मक स्थितियों पर खुलकर चर्चा जरूर कर सकते हैं लेकिन तब भी आपातकाल के उस काले अध्याय को तर्कसंगत नहीं ठहराया जा सकता है। देश के उस तीसरे आपातकाल के 50 साल यह संतोष करने के लिए अच्छे हैं कि देश ने फिर वैसा दौर कभी नहीं देखा…।
कौशल किशोर चतुर्वेदी
कौशल किशोर चतुर्वेदी मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में पिछले ढ़ाई दशक से सक्रिय हैं। पांच पुस्तकों व्यंग्य संग्रह “मोटे पतरे सबई तो बिकाऊ हैं”, पुस्तक “द बिगेस्ट अचीवर शिवराज”, ” सबका कमल” और काव्य संग्रह “जीवन राग” के लेखक हैं। वहीं काव्य संग्रह “अष्टछाप के अर्वाचीन कवि” में एक कवि के रूप में शामिल हैं। इन्होंने स्तंभकार के बतौर अपनी विशेष पहचान बनाई है।
वर्तमान में भोपाल और इंदौर से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र “एलएन स्टार” में कार्यकारी संपादक हैं। इससे पहले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में एसीएन भारत न्यूज चैनल में स्टेट हेड, स्वराज एक्सप्रेस नेशनल न्यूज चैनल में मध्यप्रदेश संवाददाता, ईटीवी मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ में संवाददाता रह चुके हैं। प्रिंट मीडिया में दैनिक समाचार पत्र राजस्थान पत्रिका में राजनैतिक एवं प्रशासनिक संवाददाता, भास्कर में प्रशासनिक संवाददाता, दैनिक जागरण में संवाददाता, लोकमत समाचार में इंदौर ब्यूरो चीफ दायित्वों का निर्वहन कर चुके हैं। नई दुनिया, नवभारत, चौथा संसार सहित अन्य अखबारों के लिए स्वतंत्र पत्रकार के तौर पर कार्य कर चुके हैं।